Shakuntala-Dushyanta and Bharat Story in hindi
शकुंतला-दुष्यंत और भरत की कहानी/कथा
भरत(Bharat) जी की माँ का नाम शकुंतला(Shakuntala) और पिता का नाम दुष्यंत(Dushyanta) था। इनके जन्म की कथा बड़ी रोचक और मार्मिक है।
Vishvamitra and Menaka : विश्वामित्र और मेनका
एक बार ऋषि विश्वामित्र ने तप किया। देवराज इन्द्र को लगा की कहीं विश्वामित्र उनका स्वर्ग का आसान ना ले लें। इसलिए तप को तुड़वाने के लिए उन्होंने स्वर्ग की अप्सरा मेनका को विश्वामित्र के पास भेजा। मेनका के मोह जाल में विश्वामित्र फंस गए और उनकी तपस्या भंग हो गई। मेनका-विश्वामित्र दोनों के बीच सम्बन्ध बना और मेनका ने एक बालिका को जन्म दिया।
जिसे जन्म देने के कुछ समय बाद ही एक रात मेनका उड़कर वापस इन्द्रलोक चली गई। इन कन्या को बाद में ऋषि विश्वामित्र ने कण्व ऋषि के आश्रम में रात के अंधेरे में छोड़ दिया।
इधर विश्वामित्र फिर से तपस्या में लग गए। अकेली पड़ी बालिका को देख पक्षियों ने उसे घेर लिया और वे उसकी रक्षा करने लगे। गढ़वाल में बड़ी संख्या में पाए जाने वाले इन पक्षियों को “शंटुल” या “शांटुल” कहा जाता है। सो, बालिका का नाम शांटुल पड़ा तो आगे चलकर शकुन्तला हो गया। वहीँ पर महर्षि कण्व का आश्रम था। उन्होंने बालिका को अनाथ जानकर उसका पालन-पोषण शुरू कर दिया।
Raja Dushyant and Shakuntala : राजा दुष्यंत और शकुंतला
एक बार एक बार हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत शिकार खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति सुंदर कन्या आश्रम से निकल कर आई और कहा कि-, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “आप कौन हैं?” उसने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की बेटी हूँ।”
उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” इस पर शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”
शकुन्तला कि बात सुनकर दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! मुझे तुम बेहद पसंद आई हो। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।”
शकुन्तला भी राजा दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, इसलिए उसने हाँ कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ समय महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर जाना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी सोने कि अंगूठी दी और हस्तिनापुर चले गये।
एक दिन उसी आश्रम में दुर्वासा ऋषि आये। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का अच्छे से सत्कार नहीं कर पाई। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और शाप दे दिया कि- जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और क्षमा मांगी। शकुन्तला के क्षमा मांगने से दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”
शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ समय बाद कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। रास्ते में एक तालाब में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को राजा दुष्यंत के सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! ये शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” लेकिन दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण दुष्यंत को कुछ याद नही आया और स्वीकार करने से मन कर दिया नहीं किया और उसे खूब भला बुरा कहा। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट से अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया लेकिन उसका पता नहीं चला।
कुछ दिनों के बाद इन्द्र के बुलाने पर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के बाद जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये।
Shakuntala-Dushyanta and Bharat : शकुंतला-दुष्यंत और भरत
आश्रम में एक सुन्दर बालक एक शेर के साथ खेल रहा था। ये बालक शकुंतला का पुत्र भरत(Bharat) था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “आप इस बालक को न छुयें नहीं तो उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया।
अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर सारी बात शकुन्तला को बताई। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने शकुन्तला से क्षमा मांगी और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र भरत सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये। बाद में भरत महान प्रतापी सम्राट बने।
कहते हैं की इन्ही भरत जी के नाम से हमारे देश का नाम भारत पड़ा । भरत जी बड़े पराकर्मी थे जिस कारण इसका एक नाम ‘सर्वदमन’ भी था। क्योंकि इन्होंने बचपन में ही बड़े-बड़े दुष्टों का दमन किया था। इन्होंने अपने जीवन में अनेक यज्ञ किये और ये दानवीर भी थे। इनके राज में प्रजा काफी खुश थी। हस्तिनापुर इनकी राजधानी थी। भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था। जिनसे उन्हें नौ पुत्रों की प्राप्ति हुई। लेकिन जब राजगद्दी देने की बात आई तो भरत ने कहा-‘ये पुत्र मेरे अनुरूप नहीं है।’ जिस कारण से इनको राजगद्दी नही दी जा सकती है। फिर अंत में इन्होंने महर्षि भारद्वाज की कृपा से भूमन्यु नामक पुत्र को राजगद्दी दे दी थी। इनके ही वंश में आगे शांतनु हुए जो भीष्म के पिता थे।