Pandavas Vanvas Story in hindi
पांडव वनवास की कहानी
युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करवाया था। जिसमे दुर्योधन को काफी ईर्ष्या हुई। सभी लोग राजसूय यज्ञ करने के बाद चले गए थे लेकिन दुर्योधन और शकुनि वहीँ रुक गए थे। यहीं पर मय दानव ने एक सुंदर महल बनाया था। जिसमे जल में थल व थल में जल प्रतीत होता था।
Duryodhan ka apmaan : दुर्योधन का अपमान
दुर्योधन इंद्रप्रस्थ में मय दानव द्वारा बनाये महल में जल को थल समझकर उसमे गिर गया। उसके गिरने पर द्रौपदी में मुँह से मजाक में निकल गया था –“अंधे का पुत्र अँधा”। भीम, अर्जुन और नकुल-सहदेव सभी उस समय जोर जोर से हँसने लगे।
दुर्योधन ने इसे अपना अपमान समझा और हस्तिनापुर में आ गया। यहाँ पर दुर्योधन ने शकुनि व कर्ण को बताया। शकुनि बोला- युधिष्ठिर को जूए का खेल बहुत प्रिय है, किंतु वे उसे खेलना नहीं जातने। यदि महाराज(धृतराष्ट्र) युधिष्ठिर को द्यूतक्रीडा के लिये बुलाये तो वे पीछे नहीं हट सकेंगे। मैं जूआ खेलने में बहुत निपुण हूँ। इस कला में मेरी समानता करने वाला पृथ्वी पर दूसरा कोई नही हैं। यहीं नहीं, तीनों लोकों में मेरे जैसा द्यूतिविद्या का जानकार नहीं है। इसलिए तुम द्यूतक्रीड़ा के लिये युधिष्ठिर को बुलाओं। मैं पासा फेंकने में कुशल हूँ, जिस कारण से युधिष्ठिर के राज्य तथा राजलक्ष्मी को तुम्हारे लिये अवश्य प्राप्त कर दूँगा, इसमे संशय नहीं है। क्योंकि शकुनि के पास ऐसे पास थे जो सिर्फ शकुनि के कहे के अनुसार ही चलते थे। हम पांडवों को द्युत क्रीड़ा(जुए) में हराकर तुम्हारे अपमान का बदला लेंगे।
कर्ण शकुनि की इस नीति के खिलाफ था। लेकिन दुर्योधन ने कर्ण को भी मना लिया।
दुर्योधन ने अपने पिता धृतराष्ट्र से कहा- वो पांडवों के साथ चौसर खेलना चाहता है। आप सभी पांडवों को हस्तिनापुर में बुलाइये।
धृतराष्ट्र ने विदुर को आदेश दिया कि वो सभी पांडवों को यहाँ द्युत खेलने का निमंत्रण देकर आये। विदुर राजा की आज्ञा को मना नहीं कर सका।
विदुर भीष्म के पास गए। भीष्म ने कहा कि कुछ गलत होने वाला है। जरूर शकुनि कोई चाल चल रहा है। विदुर, तुम धृतराष्ट्र को मना कर सकते थे।
विदुर ने कहा कि राजा की बात को मना कर सकते हैं। ये बात मैंने ही आपसे सीखी है। दोनों काफी चिंतित थे। अंत में विदुर जी इंद्रप्रस्थ पहुंचे। वहां पर विदुर जी का खूब स्वागत हुआ। विदुर ने पांडवों को बताया कि उनका भाई दुर्योधन उनके साथ चौसर(जुआ) खेलना चाहता है।
पांडवों ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया। सभी पांडव, द्रौपदी के साथ इंद्रप्रस्थ से हस्तिनापुर आये हैं।
सभी पांडव व द्रौपदी हस्तिनापुर पहुंचे हैं। युधिष्ठिर- भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य और अश्रवत्थामा के साथ भी यथायोग्य मिले। इसके बाद युधिष्ठिर सोमदत्त से मिलकर दुर्योधन, शल्य, शकुनि तथा जो राजा वहाँ पहले से ही आये हुए थे, उन सबसे मिले। फिर वीर दु:शासन, उसके समस्त भाई, राजा जयद्रथ तथा सम्पूर्ण कौरवों से मिल करके भाईयों सहित महाबाहु युधिष्ठिर ने बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र भवन में प्रवेश किया। यहाँ पर पतिव्रता गान्धारी और धृतराष्ट्र से मिले हैं ।
गान्धारी और धृतराष्ट्र ने सभी पांडवों को आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। सभी बहुत ही खुश थे लेकिन द्रुपदकुमारी द्रौपदी अधिक प्रसन्न नहीं हुई। रात में भोजन करने के पश्चात् शयन गृह में गये।
सुबह होने पर सभी रमणीय सभा में गये जहाँ पर द्युत क्रीड़ा का आयोजन था। यहाँ पर भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, विदुर, धृतराष्ट्र सहित सभी कौरव(दुर्योधन, दुःशाशन आदि), शकुनि, कर्ण व पांडव मौजूद थे। पूज्यनीय राजाओं का बारी-बारी से सम्मान करके सबसे मिलने-जुलने के पश्चात् वे यथायोग्य सुन्दर रमणीय गलीचों से युक्त विचित्र आसनों पर बैठे।
Mahabharat Dyut krida hindi Story : महाभारत द्युत क्रीड़ा की कहानी
धृतराष्ट्र की आज्ञा से जुए के खेल को शुरू किया गया। लेकिन दुर्योधन ने हठ पकड़ ली कि मेरी ओर से मेरे पासे मेरे
मामा शकुनि फेंकेंगे। सभी ने इसका विरोध किया। लेकिन दुर्योधन ने कहा- यदि आपको नहीं खेलना है तो आपकी मर्जी। परन्तु पासे मेरे मामा ही फेंकेंगे।
युधिष्ठिर ने इसकी अनुमति दुर्योधन को दे दी।
अब द्यूतक्रीडा आरम्भ हुई। युधिष्ठिर ने अपने गले में पहना हुआ हार सबसे पहले दांव पर लगाया।
दुर्योधन ने भी बहुत सी मणियाँ और बहुत-सा धन है दावं पर लगाया। अब शकुनि ने पासे हाथ में लिए ओर फेंके। शकुनि ने पासे फेंककर युधिष्ठिर कहा-‘लो’ यह दाँव मैंने जीता’। इस तरह से युधिष्ठिर अपना पहला दांव हार गए।
युधिष्ठिर ने कहा—शकुनि मामा! तुमने छल से इस दाँव में मुझे हरा दिया। अब मैं अपना सारा धन दांव पर लगता हूँ।
शकुनि ने फिर कहा-‘लो’ यह दाँव भी मैंने ही जीता’। औऱ ऐसा कहकर जैसे ही पास फेंका शकुनि की जीत हुई।
अब युधिष्ठिर ने अपना दायक राज रथ को दांव पर लगाया। यह अकेला रथ एक हजार रथों के समान था।
शकुनि ने फिर से पासे फेंके और जीत का निश्चय करके युधिष्ठिर से कहा-‘लो’ यह भी जीत लिया’। इस तरह से रथ को भी शकुनि व दुर्योधन ने जीत लिया।
फिर युधिष्ठिर ने एक लाख तरुणी दासियाँ जुए में हारी। इसके बाद युधिष्ठिर ने अपने सभी हाथी, घोड़े, दस हजार श्रेष्ठ रथ और छकडे़, अपना सारा धन, अपने सारे योद्धा जुए में दांव पर लगा दिए लेकिन शकुनि ने अपने पासों से युधिष्ठिर को हरा दिया।
इतना सब होने के बाद विदुर से चुप नहीं रहा गया। विदुर जी ने धृतराष्ट्र को कहा कि आप कुछ भी करके इस द्युत क्रीड़ा को रुकवाइये।
नहीं तो अनर्थ हो जायेगा। कुरुवंश का कभी भी भला नहीं होगा। जूआ खेलना झगडे़ की जड़ है। इससे आपस में फूट पैदा होती है, जो बड़े भयंकर संकट की
सृष्टि करती है। इस तरह से युद्ध छिड़ जायेगा मेरी इच्छा है कि यह शकुनि जहाँ से आया है, वहाँ लौट जाय। इस तरह कौरवों तथा पाण्डवों में युद्ध की आग न भड़काओ।
दुर्योधन बोला—विदुर! यह हम जानते हैं, हमें मूर्ख समझकर तुम सदा हमारा अपमान ही करते रहते हो। तुमने लगता है कि पांडव हमेशा ठीक करते है औऱ हम गलत। पांडव खुद ही सभी चीजे जुए में हारे है। तुम चुपचाप बेथ जाओ। ऐसा कहकर दुर्योधन ने विदुर को चुप करवा दिया।
शकुनि बोला- युधिष्ठिर! आप अब तक पाण्डवों का बहुत-सा धन हार चुके। औऱ कुछ दांव पर लगाना है या अपनी हार स्वीकार करते हो?
युधिष्ठिर बोले- हम हार स्वीकार नहीं करते हैं।
ऐसा कहकर युधिष्ठिर ने अपने राज्य इंद्रप्रस्थ को दांव पर लगा दिया।
शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा – ‘लो, यह दाँव भी मैंने ही जीता’। ऐसा कहकर शकुनि ने ये दांव भी जीत लिया।
अब दुर्योधन ने पूछा। हार स्वीकार करते हो या अभी औऱ खेलोगे? युधिष्ठिर ने हार स्वीकार नहीं की।
इसके बाद युधिष्ठिर ने अपने छोटे भाई नकुल को दांव पर लगा दिया। शकुनि ने इसे भी दावं में जीत लिया। औऱ नकुल को दुर्योधन का दास बना दिया।
फिर सहदेव को दांव पर लगाया। शकुनि ने इसे भी दुर्योधन का दास बना दिया। अब युधिष्ठिर भी क्रोध में थे लेकिन कुछ कर नहीं सकते थे।
शकुनि बोला – राजन्! आपके ये दोनों प्रिय भाई माद्री के पुत्र नकुल-सहदेव तो मेरे द्वारा जीत लिये गये, अब रहे भीमसेन और अर्जुन। मैं समझता हूँ, वे दोनों आपके लिये अधिक गौरव की वस्तु हैं (इसीलिये आप इन्हें दाँव पर नहीं लगाते)।
युधिष्ठिर बोले – ओ मूढ़! तू अधर्म का आचरण कर रहा है, जो न्याय की ओर नहीं देखता। तू हमारे भाइयों में फूट डालना चाहता है।
शकुनि बोला – धर्मराज युधिष्ठिर! जुआरी जूआ खेलते समय पागल होकर जो अनाप-शनाप बातें बक जाया करते हैं।
युधिष्ठिर ने कहा- शकुने! ये लो अब मैं अर्जुन को दांव पर लगता हूँ। वीर राजकुमार अर्जुन यद्यपि दाँव पर लगाने योग्य नहीं हैं, तो भी उनको दाँव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ खेलता हूँ।
यह सुनकर कपटी शकुनि ने युधिष्ठिर से कहा – ‘यह भी मैंने ही जीता’। शकुनि फिर बोला – राजन्! अर्जुन मेरे द्वारा जीत लिये गये। अब आपके पास भीमसेन ही जुआरियों को प्राप्त होने वाले धन के रूपमें शेष हैं, अत: उन्हीं को दाँव पर रखकर खेलिये।
युधिष्ठिर ने कहा – मैं राजकुमार भीमसेन को दाँव पर लगाकर मैं जुआ खेलता हूँ।
यद्यपि वे इसके योग्य नहीं हैं। शकुनि ने निश्चय के साथ युधिष्ठिर से कहा, ‘यह दाँव भी मैंने ही जीता’। औऱ भीम को जुए में जीत लिया।
इसके बाद युधिष्ठिर ने खुद को दांव पर लगा दिया। औऱ खुद को भी जुए में हार गए। दुर्योधन काफी खुश हुआ।
दुर्योधन चीख-चीख कर कहने लगा मैंने तुम सबको जुए में हरा दिया है अब तुम सब भाई मेरे दास हो।
ऐसा कहकर दुर्योधन युधिष्ठिर से कहता है अब औऱ क्या दांव पर लगाओगे?
युधिष्ठिर कहते हैं- मैंने अपना सब कुछ राज-पाठ, धन दौलत , अपने दास दासी व भाई औऱ खुद को तो जुए में हरा दिया है। अब मेरे पास कुछ भी नहीं है दांव पर लगाने के लिए।
दुर्योधन ने कहा- तुम अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगा सकते हो। द्रौपदी एक ऐसा दाँव है, जिसे आप अब तक नहीं हारे हैं; इसलिए पांचालराज कुमारी कृष्णा को आप दाँव पर रखिये और उसके द्वारा फिर अपने को जीत लीजिये।
ऐसा सुनते ही भीम, अर्जुन, नकुल सहदेव दुर्योधन को मारने के दौड़े लेकिन दुर्योधन ने उन्हें दास कहकर बिठा दिया।
अब युधिष्ठिर ने द्रौपदी को भी दावं पर लगा दिया। धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहते ही उस सभा में बैठे हुए बडे़-बडे़ लोगों के मुख से ‘धिक्कार है, धिक्कार है’ की आवाज आने लगी। उस समय सारी सभा में हलचल मच गयी। राजाओं को बड़ा शोक हुआ। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि के शरीर से पसीना छूटने लगा। विदुरजी तो दोनों हाथों से अपना सिर थामकर बेहोश-से हो गये। वे फुँफकारते हुए सर्प की भाँति अच्छावास लेकर मुँह नीचे किये हुए गम्भीर चिन्ता में निमग्न हो बैठे रह गये। बाह्रीक, प्रतीप के पौत्र सोमदत्त, भीष्म, संचय, अश्वत्थामा, भूरिश्रवा तथा धृतराष्ट्र युयुत्सु – ये सब मुँह नीचे किये सर्पों के समान लंबी साँसें खींचते हुए अपने दोनों हाथ मलने लगे। धृतराष्ट्र मन-ही-मन प्रसन्न हो उनसे बार-बार पूछ रहे थे, ‘क्या हमारे पक्ष की जीत हो रही है ?’
वे अपनी प्रसन्नता की आकृति को न छिपा सके। दु:शासन आदि के साथ कर्ण बड़े खुश हुए लेकिन हुअन्य सभासदों की आँखों से आँसू गिरने लगे। सुबलपुत्र शकुनि ने-मैंने यह भी जीत लिया, ऐसा कहकर पासों को पुन: उठा लिया। उस समय वह विजयोउल्लास से सुशोभित और मदोन्मत्त हो रहा था। पेज 2 पर जाइये