Jay and Vijay curse(shrap) story in hindi
जय और विजय को श्राप
श्री हरि(Shri Hari) के जय(jai) और विजय(vijay) दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं। ये बैकुंठ धाम में भगवान के द्वार पर रक्षा करते रहते है। एक बार सनकादिक ऋषि-sankadik rishi(ब्रह्मा के चार मानस पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) बैकुंठ में भगवान के दर्शन के लिए गए। जय और विजय ने इन सनकादिक ऋषियों को द्वार पर ही रोक लिया और बैकुण्ठ लोक के भीतर जाने से मना करने लगे।
इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों को क्रोध आ गया और जय-विजय(jay-vijay) से कहा, “अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। हम देवाधिदेव के दर्शन करना चाहते हैं। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। भगवान का स्वभाव परम शान्तिमय है, तुम्हारा स्वभाव भी वैसा ही होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।”
इतना कहने पर भी जय-विजय ने इन्हे जाने नही दिया। और कहा जब मर्जी आप लोग भगवान का दर्शन करने के लिए चले आते हो। भगवान को भी थोड़ा आराम करने दिया करो।
फिर इन्होने जय-विजय को श्राप(shrap) दे डाला- “भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग 3 जन्म तक पापयोनि में जाओगे और असुर बनोगे और अपने पाप का फल भुगतोगे।” उनके इस प्रकार शाप(shrap) देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा माँगने लगे।
लेकिन एकदम से जय-विजय को ग्लानि हुई है की हमने कैसे आज ऋषिकुमारों को श्राप दे दिया। ये हमने ठीक नहीं किया। अरे हमारा तो काम है जो भी भगवान से मिलने आये उसे भगवान तक मिलवाना। हम कौन होते है इनको रोकने वाले।
और इधर ऋषिकुमारों को भी ग्लानि हुई है की हम भगवान के भक्त है। भगवान का नाम जपते है। हमे क्रोध नही आना चाहिए था और क्रोध तो आया वो सही लेकिन हमने श्राप भी दे डाला। अरे! वैकुण्ठ के तो पशु पक्षियों को भी क्रोध नही आता है। ये हमने ठीक नही किया। ये भी ग्लानि से भर गए।
जब भगवान विष्णु को पता चला की सनत्कुमार(snatkumar) आदि ऋषि द्वार पर आये है तो भगवान विष्णु स्वयं लक्ष्मी जी एवं अपने समस्त पार्षदों के साथ उनके स्वागत के लिय पधारे। भगवान ने सनकादिक ऋषियों से कहा- “हे मुनीश्वरों! ये जय और विजय नाम के मेरे पार्षद हैं। इन दोनों ने अहंकार बुद्धि को धारण कर आपका अपमान करके अपराध किया है। आप लोग मेरे प्रिय भक्त हैं और इन्होंने आपकी बात न मानकर मेरी भी अवज्ञा की है। इनको शाप देकर आपने उत्तम कार्य किया है। इन अनुचरों ने ब्रह्मणों का तिरस्कार किया है और उसे मैं अपना ही तिरस्कार मानता हूँ। मैं इन पार्षदों की ओर से क्षमा याचना करता हूँ। सेवकों का अपराध होने पर भी संसार स्वामी का ही अपराध मानता है। अतः मैं आप लोगों की प्रसन्नता की भिक्षा चाहता हूँ।”
और ये जो कुछ भी हुआ है सब मेरी इच्छा से ही हुआ है। आप चिंता न करो। मेरा पृथ्वी पर अवतार लेने का मन कर रहा है। जब ये असुर बनकर आएंगे तो इनके उद्धार के बहाने अपने भक्तों को प्यार करने आऊंगा। और फिर ये 3 जन्मो में असुर बने हैं।
पहले जन्म में हिरण्याक्ष(Hiranyaksha) और हिरण्यकशिपु(Hiranyakashipu) बने है। और भगवान ने वराह(Varaha) और नृसिंह(narsingh) अवतार लिया है । और इनका उद्धार किया है ।
दूसरे जन्म में रावण(Ravana) और कुम्भकरण(kumbhakarna) बने है। भगवान ने राम(Ram) बनकर इनका उद्धार किया है।
तीसरे जन्म में शिशुपाल और दन्तवक्र बने है। जो भगवान ने श्री कृष्ण(shri krishna) अवतार लेके इनका उद्धार किया है।
Thank you so much sir! Keep it up!
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Thank you very much
your welcome.. jai siyaram 🙂
ओम नमो भगवते वासुदेवाय