Dronacharya and Dhrupad Mahabharat story in hindi
द्रोणाचार्य और द्रुपद की महाभारत में कहानी
गुरु द्रोणाचार्य जी अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा तथा धनुर्वेद का ज्ञान लेने के लिए महर्षि अग्निवेश के पास गए। वहां द्रोणाचार्य जी ने ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सिर पर जटा धारण किये बहुत वर्षों व्यतीत किये। द्रोण गुरु की सेवा करते हुए उनके ही आश्रम में रहते थे। उन्ही दिनों में पाञ्चाल राजकुमार यज्ञसेन द्रुपद भी धनुर्वेद की शिक्षा पाने के लिये उन्हीं गुरुदेव अग्निवेश के समीप रहते थे।
वे उस गुरुकुल द्रोण के प्रिय मित्र थे। दोनों का अध्ययन साथ-साथ चलता था। द्रुपद द्रोण के बहुत गहरे मित्र थे। एक दिन द्रुपद द्रोण से बोले- ‘द्रोण! मैं अपने पिता का अत्यन्त प्रिय पुत्र हूं। जब पाञ्चाल नरेश मुझे राज्य पर अभिषिक्त करेंगे, उस समय मेरा राज्य तुम्हारे उपभोग में आयेगा। मैं सत्य की सौगन्ध खाकर कहता हूं- मेरे भोग, वैभव और सुख सब तुम्हारे अधीन होंगे।’ ऐसा कहकर वे अस्त्र विद्या में निपुण हो मुझसे सम्मानित होकर अपने देश को लौट गये। उनकी उस समय कही हुई इस बात को द्रोणाचार्य जी अपने मन में सदा याद रखते थे।
कुछ दिनों के बाद शरद्वान् की पुत्री कृपी से, द्रोणचार्य जी का विवाह हो गया। कुछ समय के बाद द्रोण और कृपी से इन्हें इन्हें एक पुत्र हुआ। जिसका नाम अश्वत्थामा रखा । द्रोणाचार्य जी बड़े ही खुश थे।
एक दिन की बात है, गोधन के धनी ऋषि कुमार गाय का दूध पी रहे थे। उन्हें देखकर द्रोण का छोटा बच्चा अश्वत्थामा भी बाल-स्वभाव के कारण दूध पीने के लिये मचल उठा और रोने लगा। द्रोणचार्य जी का ह्रदय उस समय दुःख से भर गया। क्योंकि उनके पास गाय नही थी। द्रोणाचार्य जी मन में सोचते हैं की मैं किसी कम गाय वाले ब्राह्मण से गाय मांगता हूँ तो कहीं ऐसा न हो कि मेरे कारण वे खुद ही बिना दूध के रह जाये; इसलिए जिसके पास बहुत-सी गौऐं हों, उसी से दान लेने की इच्छा करके द्रोण जी कई सारी जगह घूमे। लेकिन उन्हें दूध देने वाली गाय न मिल सकी।
जब थक हारकर द्रोणचार्य घर आये तो देखते हैं कि छोटे-छोटे बच्चे आटे के पानी से अश्वत्थामा को ललचा रहे थे और अश्वत्थामा अज्ञान के कारण उस आटे के पानी को ही पीकर ख़ुशी से फूला नहीं समाता तथा यह कहता हुआ उठकर नाच रहा था कि ‘मैंने दूध पी लिया’। ये सब देखकर द्रोणाचार्य जी के मन में बड़ा क्षोभ हुआ। कुछ लोग यहाँ तक कह रहे थे कि द्रोण को धिक्कार है कि वो अपने बच्चे को दूध पीने के लिए एक गाय तक नही दे सकता।
जब द्रोणाचार्य जी ने ये सब बातें सुनी तो उनकी बुद्धि ने काम करना बंद कर दिया और सोचने लगे- मुझे दरिद्र जानकर पहले से ही ब्राह्मणों ने मेरा साथ छोड़ दिया। मैं धन के आभाव के कारण निन्दित होकर उपवास भले ही कर लूंगा, परंतु धन के लोभ से दूसरों की सेवा, जो अत्यन्त पाप पूर्ण कर्म है, कभी भी नहीं कर सकता’।
ऐसा सोचकर द्रोण अपनी पत्नी व पुत्र के साथ राजा द्रुपद के पास गए। क्योंकि द्रोणाचार्य ने सुना था कि द्रुपद का राज्यभिषेक हो चुका है और उससे गाय मांग ली जाये। ऐसा मन में विचार करके द्रोण जी द्रुपद राजा के पास पहुंचे।
द्रुपद के पास पहुंचकर द्रोण ने कहा- ‘राजन! मुझ अपने मित्र को पहचानो तो सही। द्रोणाचार्य जी एक दोस्त कि तरह द्रुपद से मिले। लेकिन द्रुपद ने उन्हें नीच मनुष्य के समान मानकर उनका मजाक उड़ाते हुए कहा-ब्राह्मण! ‘राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूं?’ तुम्हारी बुद्धि तो ठीक है ना? समय के अनुसार मनुष्य जैसे जैसे बूढा़ होता है, विकास ही उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्य को लेकर थी। मित्रता तो बराबरी वालों में ही की जाती है।
हम दोनों एक दूसरे के मित्र थे, इस भाव को हृदय से निकाल दो। तुम्हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह ( साथ-साथ खेलने और अध्ययन करने आदि ) स्वार्थ को लेकर हुई थी।
सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का और कायर शूरवीर का सखा नहीं हो सकता; अत: पहले की मित्रता का क्या भरोसा करते हो? बड़े-बड़े राजाओं की तुम्हारे जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्यों के साथ कभी मित्रता हो सकती है? मैंने अपने राज्य के लिये तुमसे कोई प्रतिज्ञा की थी, इसका मुझे कुछ भी स्मरण नहीं है। अगर तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हें एक रात के लिये अच्छी तरह भोजन दे सकता हूं।’
ऐसा सुनते ही द्रोणाचार्य जी का ह्रदय क्रोध से भर गया। वे अपनी पत्नी और पुत्र के साथ वहां से चल दिए। चलते समय उन्होंने एक प्रतिज्ञा की थी कि द्रुपद के द्वारा जो इस प्रकार तिरस्कार पूर्ण वचन मेरे प्रति कहा गया है, उसके कारण मैं क्षोभ से अत्यन्त व्याकुल हो रहा हूं। और इस अपमान का बदल मैं जल्दी ही लूंगा। ऐसा कहकर द्रोणाचार्य जी हस्तिनापुर में आये और कौरव व पांडवों के गुरु बने। उन्हें शिक्षा प्रदान करने के बाद उन्होंने गुरुदक्षिणा में द्रुपद को बंदी बनाकर लाने को कहा। कौरव द्रुपद को लाने में असमर्थ रहे जबकि पांडवों के द्रुपद को बंदी बनाकर द्रोणाचार्य के पास ला दिया।
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पांडव और कौरव की गुरु दक्षिणा के बाद द्रोण ने अपने अपमान का बदला ले लिया था और फिर द्रुपद को माफ़ करके उसका राज्य उसे लौटा दिया। लेकिन द्रुपद ने अब खुद को अपमानित समझा। जिस कारण द्रुपद ने यज्ञ करके पुत्री याज्ञसेनी(द्रौपदी) को पाया और कालांतर में इसी यज्ञ की अग्नि से द्रौपदी के भाई उत्पन्न हुए धृष्टद्युम्न। धृष्टद्युम्न ने ही द्रोणाचार्य का वध किया था। इस यज्ञ के कारण ही द्रुपद का एक नाम राजा यज्ञसेन भी था।
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