Bhishma Pitamah Birth Story/Katha in hindi
भीष्म पितामह जन्म की कहानी/कथा
एक समय हस्तिनापुर के महाराज प्रतीप गंगा तट हरिद्वार में गये और बहुत वर्षों तक जप करते हुए एक असान पर बैठे रहे। उस समय गंगा सुन्दर रुप और युवती का रुप धारण करके जल से निकलीं और राजा प्रतीप की दाहिने ऊरु (जांघ) पर जा बैठ गई।
राजा ने पूछा-“तुम्हारी क्या इच्छा है?”
गंगा जी ने कहा- “मैं आपको ही चाहती हूं। आपके प्रति मेरा अनुराग है, अत: आप मुझे स्वीकार करें।”
राजा ने कहा – मैं कामवश परायी स्त्री के साथ समागम नहीं कर सकता। यदि मैं धर्म के विपरीत तुम्हारा यह प्रस्ताव स्वीकार कर लूं तो धर्म का यह विनाश मेरा भी नाश कर डालेगा। तुम मेरी दाहिनी जांघ पर आकर बैठी हो। तुम्हें मालूम होना चाहिये कि यह पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधु का आसन है। पुरुष की बायीं जांघ ही पत्नी के उपभोग के योग्य है; किंतु तुमने उसका त्याग कर दिया है।
हाँ, एक काम हो सकता है की तुम मेरी पुत्रवधु हो जाओ। मैं अपने पुत्र के लिये तुम्हारा वरण करता हूं।
गंगा जी बोली- आप जैसा कहते हैं, वैसा भी हो सकता है। मैं आपके पुत्र के साथ संयुक्त होऊंगी। लेकिन मैं एक शर्त के साथ आपके पुत्र से विवाह करूंगी। मैं जो कुछ भी करूं वह सब आपके पुत्र को स्वीकार होना चाहिये। इस शर्त पर ही मैं आपके पुत्र के प्रति आना प्रेम बढ़ाऊंगी।
इसके बाद प्रतीप अपनी पत्नी को साथ लेकर पुत्र के लिये तपस्या करने लगे।
कुछ समय बाद प्रतीप की पत्नी गर्भवती हुई। कुछ समय बाद दसवां महीना होने पर प्रतीप की महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया। शान्त पिता की संतान होने से “शान्तनु” नाम रखा गया। पूर्वजन्म में शांतनु राजा महाभिष थे।
Shantanu-Ganga and Bhishma Story in hindi : शांतनु-गंगा और भीष्म की कहानी/कथा
युवावस्था राजकुमार शान्तनु(Shantanu) को राजा प्रतीप ने कहा- ‘शांतनु! पूर्वकाल में मेरे पास एक दिव्य नारी आयी थी। उसका आगमन तुम्हारे कल्याण के लिये ही हुआ था। बेटा ! यदि वह सुन्दरी कभी एकान्त में तुम्हारे पास आवे, और तुमसे पुत्र पाने की इच्छा रखती हो, तो तुम उससे कोई प्रश्न मत करना जैसे-तुम कौन हो? किसकी पुत्री हो? वो जो कार्य करे उसे करने दो। यदि वह तुम्हें चाहे, तो मेरी आज्ञा से उसे अपनी पत्नी बना लेना। अपने पुत्र शान्तनु को ऐसा आदेश देकर राजा प्रतीप ने उसी समय उन्हें अपने राज्य पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं वन में प्रवेश किया। राजा शान्तनु देवराज इन्द्र के सामन तेजस्वी थे।
एक बार शांतनु जी हिरन का शिकार करते-करते गंगा जी के तट पर पहुंचे। उन्होंने गंगा के तट पर एक सुन्दर नारी को देखा। मानो जैसे साक्षात् लक्ष्मी ही दूसरा शरीर धारण करके आ गयी हो। वह दिव्य आभूषणों से विभूषित थी। उसे देखते ही राजा शान्तनु के शरीर में रोमाञ्च हो आया। और उसके सौन्दर्य पर मन्त्र मुग्ध हो गए। राजा शान्तनु उसके पास गए और बोले- “देवी! तुम चाहे कोई भी हो लेकिन मैं तुमसे याचना करता हूं कि मेरी पत्नी हो जाओ’।
उन देवी ने विवाह के लिए स्वीकृति दे दी लेकिन एक शर्त भी रख दी। आप मुझसे ये नही पूछोगे की मैं कौन हूँ ? मैं भला या बुरा जो कुछ भी करूं, उसके लिये मुझे नही रोकेंगे और और न ही कुछ पूछेंगे। यदि आपने कभी मुझे किसी कार्य से रोका या कुछ कहा तो मैं आपका साथ छोड़ दूंगी।
राजा शांतनु ने उनकी सब शर्त मान ली और राजा शान्तनु उनको रथ पर बिठाकर उनके साथ अपनी राजधानी को चले गये।
महाराज शान्तनु के द्वारा उनके गर्भ से देवताओं के समान तेजस्वी आठ पुत्र उत्पन्न किये। लेकिन जो-जो पुत्र उत्पन्न होता, उसे वह गंगाजी के जल में फेंक देती और कहती- ‘( वत्स ! इस प्रकार शाप से मुक्त करके ) मैं तुम्हें प्रसन्न कर रही हूं। ‘ऐसा कहकर वह स्त्री प्रत्येक बालक को धारा में डुबों देती थी। पत्नी का यह व्यवहार राजा शान्तनु को अच्छा नहीं लगता था, लेकिन वे उस समय उससे कुछ नहीं कहते थे। राजा को यह डर बना हुआ था कि कहीं वह मुझे छोड़कर चली न जाय। इन्होंने सात पुत्र जल में बहा दिए थे।
जब आठवां पुत्र उत्पन्न हुआ, और उसे जल में बहाने के लिए जा रही थी तो राजा शांतनु ने दुःखी होकर कहा-‘अरी ! इस बालक का वध न कर, तू किसकी कन्या है? कौन है? क्यों अपने ही बेटों को मारे डालती है। तुझे पुत्र हत्या का पाप लगेगा।
वह स्त्री बोली- मैं तुम्हारे इस पुत्र को नहीं मारुंगी लेकिन यहां मेरे रहने का समय अब समाप्त हो गया क्योंकि मैंने पहले ही शर्त रखी थी। मैं जह्रु की पुत्री और महर्षिं द्वारा सेवित “गंगा”(Ganga) हूं। देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये तुम्हारे साथ रह रही थी। ये तुम्हारे आठ पुत्र महा तेजस्वी महाभाग वसु देवता हैं। वसिष्ठजी के शाप-दोष से ये मनुष्य-योनि में आये थे। तुम्हारे सिवा दूसरा कोई राजा इस पृथ्वी पर ऐसा नहीं था, जो उन वसुओं का जनक हो सके। इसी प्रकार इस जगत् में मेरी-जैसी दूसरी कोई मानवी नहीं हैं, जो उन्हें गर्भ में धारण कर सके। अत: इन वसुओं की माँ होने के लिये मैं मानव शरीर धारण करके आयी थी।
तुमने आठ वसुओं को जन्म देकर अक्षय लोक जीत लिये हैं। वसु देवताओं की यह शर्त थी और मैंने उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा का ली थी कि जो-जो वसु जन्म लेगा, उसे मैं जन्मते ही मनुष्य–योनि से छुटकारा दिला दूंगी। इसलिये अब वे वसु महात्मा आपव (वसिष्ठ) के शाप से मुक्त हो चुके हैं। तुम्हारा कल्याण हो, जब मैं जाऊंगी । तुम इस महान् व्रतधारी पुत्र का पालन करो। यह तुम्हारा पुत्र सब वसुओं के पराक्रम से सम्पन्न होकर अपने कुल का आनन्द बढ़ाने के लिये प्रकट हुआ है। यह बालक बल और पराक्रम में दूसरे सब लोगों से बढ़कर होगा। यह बालक वसुओं में से प्रत्येक के एक-एक अंश का आश्रय है- सम्पूर्ण वसुओं के अंश से इसकी उत्पत्ति हुई है, मैंने तुम्हारे लिये वसुओं के समीप प्रार्थना की थी कि ‘राजा का एक पुत्र जीवित रहे’। इसे मेरा बालक समझना और इसका नाम ‘गंगादत्त’( देवव्रत ) रखना।
शांतनु ने पूछा- शान्तनु ने पूछा- देवि ! ये आपव नाम के महात्मा कौन हैं? और वसुओं का क्या अपराध था, जिससे आपव के शाप से उन सबको मनुष्य-योनि में आना पड़ा?
तब गंगा जी ने सब कथा कह सुनाई । Read : आपव मुनि और अष्ट वसु शाप कथा
आपका ये पुत्र देवव्रत और गंगादत्त(भीष्म ) de– नामों से जाना जायेगा। आपका बालक गुणों में आपसे भी बढ़कर होगा। आपका यह पुत्र अभी शिशु-अवस्था में है। बड़ा होने पर फिर आपके पास आ जायगा और आप जब मुझे बुलायेंगे तभी मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊंगी। यह सब बातें बता कर गंगादेवी उस नवजात शिशु को साथ ले वहीं अन्तर्धान हो गयीं और अपने अभीष्ट स्थान को चली गयीं। उस बालक का नाम हुआ देवव्रत। कुछ लोग गांगेय भी कहते थे। इधर शान्तनु शोक में डूबकर अपने नगर को लौट गये।
एक समय राजा शान्तनु एक हिरण का पीछा करते हएु भागीरथी गंगा के तट पर आये। उन्होंने देखा कि गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है। उसे देखकर शान्तनु इस चिन्ता में पड़ गये कि यह नदियों में श्रेष्ठ देव नदी आज पहले की तरह क्यों नहीं बह रही है। इसका कारण पता लगाते हुए जब आगे बढे तो देखा, कि एक सुन्दर बालक दिव्यास्त्र का अभ्यास कर रहा है और अपने तीखे बाणों से पूरी गंगा की धारा को रोक कर खड़ा है।
राजा ने बालक का यह कर्म देखा और उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। लेकिन वे ये नही जान सके की ये उनका ही पुत्र है। बालक ने अपने पिता को देखकर उन्हें माया से मोहित कर दिया और मोहित करके शीघ्र यहीं अन्तर्धान हो गया। यह अद्भुत बात देखकर राजा शान्तनु को कुछ संदेह हुआ और उन्होंने गंगा से अपने पुत्र को दिखाने को कहा। तब गंगाजी परम सुन्दर रुप धारण करके अपने पुत्र का दाहिना हाथ पकड़े सामने आयीं और दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित देवव्रत को दिखाया। गंगाजी ने कहा- महाराज ! पूर्वकाल में आपने अपने जिस आठवें पुत्र को मेरे गर्भ से प्राप्त किया था, यह वही है। यह सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओं में अत्यन्त उत्तम है। मैंने इसे पाल-पोसकर बड़ा कर दिया है। अब आप अपने इस पुत्र को ग्रहण कीजिये ।
आप इसे घर ले जाइये। आपका यह बलवान् पुत्र महर्षि वशिष्ठ से छहों अंगों सहित वेदों का अध्ययन कर चुका है। यह अस्त्र-विद्या का भी पण्डित है, महान् धनुर्धर है और युद्ध में देवराज इन्द्र के समान पराक्रमी है। भारत ! देवता और असुर भी इसका सदा सम्मान करते हैं। शुक्राचार्य जिस (नीति) शास्त्र को जानते हैं, उसका यह भी पूर्ण रुप से जानकार है। गुरु बृहस्पति जिस शास्त्र को जानते हैं, वह भी आपके पुत्र भी जानते हैं। परशुराम जिस अस्त्र-विद्या को जानते हैं, वह भी मेरे इस पुत्र में प्रतिष्ठित है। यह कुमार राजधर्म तथा अर्थशास्त्र का महान् पण्डित है। मेरे दिये हुए इस महा धनुर्धर वीर पुत्र को आप घर ले जाइये। ऐसा कहकर महाभागा गंगा देवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं। गंगाजी के इस प्रकार आज्ञा देने पर महाराज शान्तनु सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले अपने पुत्र को लेकर राजधानी में आ गए।
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