Kalyug ke Baba Sant or Tapasvi kaise hai
कलियुग के बाबा संत और तपस्वी कैसे हैं?
आज कल हम कुछ भी बुरा देखते हैं और सुनते है तो कहते हैं कि घोर कलियुग आ गया है। जिसे हम श्रेष्ठ का दर्जा दे देते हैं वो ही फिर लोगों का विश्वास तोड़ देता है। कहीं न कहीं गलती हमारी ही है या फिर कलियुग तो है ही।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में कलयुग के लक्षणों के बारे में बताया है। बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है। आज कल कुछ लोग संत भेष बना लेते हैं और फिर ना जाने कितने गलत काम करते हैं। इससे लोगों की आस्था और विश्वास तो टूटते ही हैं साथ में देश बर्बादी की तरफ भी जाता है।
कलियुग की सच्चाई : The truth of Kalyuga in hindi
तुलसीदास जी ने एक चौपाई के माध्यम से हमें बताया है कि इस कलियुग के सन्यासी कैसे हो गए हैं –
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥
तपसी धनवंत दरिद्र गृही। कलि कौतुक तात न जात कही॥
अर्थ :-संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रहा, उसे विषयों ने हर लिया। तपस्वी धनवान हो गए और गृहस्थ दरिद्र। हे तात! कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती॥
कितनी साफ़ साफ़ बात लिख दी है तुलसीदास जी ने कि बहुत सारा धन लगाकर सन्यासी लोग अपने घर को सजा लेते हैं। आजकल यही तो हो रहा है। आप देख लीजिये किसी को भी, बस पैसा कमाने की धुन्न सवार होती जा रही है। उनमें न तो किसी भी तरह का वैराग्य रहा है और ना ही संयम, वो विषय में फंसे जा रहे हैं। जरा खुद सोचिये आप लोग कि जो खुद विषय में फसे हुए हैं वो दूसरों को कैसे विषयों से निकल सकते हैं?
आजकल के सारे तपस्वी तो पैसे वाले हो गए हैं। कभी आजकल के तपस्वी को आप गरीब नहीं पाओगे, आजकल मतलब कलयुगी तपस्वी और गृहस्थ लोग दरिद्र होते जा रहे हैं, गरीब होते जा रहे हैं। पहले के ज़माने में तपस्वी लोग पैसा बिल्कुल भी नहीं मांगते थे।
लेकिन आज कल के बाबा लोग, मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है कि पैसे मांगते हैं। खाने पीने की चीज दो तो भी कहते हैं बच्चा, दक्षिणा दो।
ये सब कलयुग की लीला है और इस कलयुग की लीला कुछ कही नहीं जा सकती। इस युग में कुछ भी हो सकता है।
तुलसीदास जी कहते हैं –
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥
अर्थ :-जो आचारहीन है और वेदमार्ग को छोड़े हुए है, कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है॥
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥
भावार्थ:-जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-भक्ष्य (खाने योग्य और न खाने योग्य) सब कुछ खा लेते हैं वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य हैं॥
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥
अर्थ :-जिनके आचरण दूसरों का अपकार (अहित) करने वाले हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य होते हैं। जो मन, वचन और कर्म से लबार (झूठ बकने वाले) हैं, वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते हैं॥
ये सब आप रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में पढ़ सकते हैं। ये सब कलयुग में हो भी रहा है। इसका अर्थ ये बिल्कुल भी नहीं है कि हमें संतों का निरादर करना चाहिए या सभी संत जन ऐसे हैं। लेकिन अधिकतर ऐसे ही हैं। हमें किसी की भी निंदा या आलोचना करने का कोई हक़ नहीं है। ये सिर्फ कलयुग के तपस्वियों के लक्षण हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने विवेक से इस पर चिंतन करना चाहिए और भक्ति के मार्ग पर आगे बढ़ना चाहिए।
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