Sati-Ram Pariksha Story : सती द्वारा राम जी की परीक्षा कथा
भगवान शिव की आज्ञा मानकर सती रामजी की परीक्षा लेने चली है और मन में सोच रही है कैसे परीक्षा लूं?
इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है।
होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥ जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।
ऐसा कहकर भगवान शिव श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥
सती ने अब सीताजी का रूप बना लिया और उस मार्ग की ओर आगे-आगे चलने लगी, जहाँ से रामजी आ रहे थे। सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके ह्रदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गंभीर हो गए, कुछ कह नहीं सके।
श्री रामचंद्रजी सती के कपट को जान गए, क्योंकि भगवान सर्वज्ञ(सब कुछ जानने वाले) हैं। लेकिन सती अब भी आगे आगे चली जा रही हैं।
भगवान श्री रामचन्द्र जी ने हंसकर कोमल वाणी से सती जी को प्रणाम किया और अपना परिचय बताया। फिर भगवान बोले- वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?
जो सती ने ये बात सुनी तो उनको बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलने लगी, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गई कि मैंने शंकरजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥
श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। मानो आज भगवान ये बता रहे हैं सती मैं तो हर जगह हूँ। यहाँ तो बस लीला चल रही है।
फिर सती जी ने पीछे मुड़कर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुंदर वेष में दिखाई दिए।
वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं। सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥
सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं॥
फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी नही दिखाई दिया। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे॥
जब भगवान शिव के पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥
सती जी बोली- कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥ हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥
आज सती ने भगवान शिव से डर के कारण झूठ बोल दिया। अगर सच बता दिया तो अनर्थ हो जायेगा।
तब भगवान शिव ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥ तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥
फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया।
भगवान शिव सोचते हैं आज सतीजी ने मेरी माँ सीताजी का वेष धारण किया। जिन प्रभु का मैं ध्यान करता हूँ आज सती जी ने जानकी जी का रूप बना के परीक्षा ली। यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ।
भगवान शिव बोले – यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥ जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥
भगवान शिव मन में विचार करते हैं सती बड़ी पवित्र है इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है।
तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि – सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया॥ एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥
ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए शिव अपने कैलास को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की। आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं।
इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा- हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥
सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया। आज सती के मन में बड़ी चिंता है।
शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। और अंदर ही अंदर उनके ह्रदय में आग बढ़ रही है।
वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥
हाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥ लागि समाधि अखंड अपारा॥
तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥ सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी।
सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥ शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। आगे पढ़े…
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