Parvati Mata Tapasya : पार्वती माता की तपस्या
माता-पिता को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष के साथ पार्वतीजी तप करने के लिए चलीं।
प्राणपति (शिवजी) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होंने मूल और फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए॥ संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥
कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया॥
फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड़ दिए, तभी पार्वती का नाम ‘अपर्णा’ हुआ। पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से भगवान की गंभीर ब्रह्मवाणी हुई- हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे॥ हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना॥
अब पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया।
याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि- मैंने पार्वती का सुंदर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो॥
जब से सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा श्री रघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे॥ इस प्रकार बहुत समय बीत गया। फिर भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है॥ श्री रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया।
फिर उन्होंने शिवजी से कहा- हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥ अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु। जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥
शिव जी राम जी के स्वामी भी हैं, मित्र भी है और सेवक भी हैं। और इसी सम्बन्ध को गोस्वामी जी ने दर्शाया है। भगवान ने शिव को पार्वती जी से विवाह करने के लिए कहा है।
शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ॥ माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥
भगवान राम बोले की शिवजी आप अपने सर पर मत रखना। आपके सर पर गंगाजी जी विराजमान हैं। कहीं आप बाद में ये न कह दो की की रामजी गंगा जी में आज्ञा बह गई। इसलिए आप अपने ह्रदय में रखो। क्योंकि आपके ह्रदय में मैं रहता हूँ। और आप मुझे देखकर मेरी आज्ञा को भूल नही पाओगे। इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए।
शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली।
पेज 3 पर जाइये