Laxman aur Mata Sumtira Sanwad : लक्ष्मण और माता सुमित्रा संवाद
अब लक्ष्मण जी बड़े प्रसन्न हुए हैं। और माँ सुमित्रा जी के पास गए हैं। मन में संकोच है की कहीं मेरी माँ मुझे रोक ना लें। क्योंकि मैं रुकने वाला तो हूँ नही और आदेश की अवज्ञा हों जाएगी।
लेकिन धन्य है ऐसी माँ। माँ सुमित्रा जी कहती हैं- बेटा! तू मुझसे आदेश मांगने ही क्यों आया। क्योंकि मैं और दशरथ जी तो केवल कहलाने के लिए तेरे माता-पिता हैं।
क्योंकि आज के बाद तुम्हारे माता-पिता सीता-राम हैं। तात तुम्हारि मातु बैदेही। पिता रामु सब भाँति सनेही॥
अवध तहाँ जहँ राम निवासू। तहँइँ दिवसु जहँ भानु प्रकासू॥ जहाँ श्री रामजी का निवास हो वहीं अयोध्या है। जहाँ सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। और माँ आज लक्ष्मण को सुंदर शिक्षा दे रही है।
पूजनीय प्रिय परम जहाँ तें। सब मानिअहिं राम के नातें॥ जगत में जहाँ तक पूजनीय और परम प्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही (पूजनीय और परम प्रिय) मानने योग्य हैं।
पुत्रवती जुबती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥ नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥
अर्थ: संसार में वही युवती स्त्री पुत्रवती है, जिसका पुत्र श्री रघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से विमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बाँझ ही अच्छी। पशु की भाँति उसका ब्याना (पुत्र प्रसव करना) व्यर्थ ही है॥
सुमित्रा जी ने एक बात और स्पष्ट कर दी है। तुम ये मत सोचना ना की ककई के कारण राम वन जा रहे हैं। बेटा! मुझे तो लगता है तुम्हारे भाग्य के कारण राम वन जा रहे हैं। तुम्हरेहिं भाग रामु बन जाहीं।
ताकि तुम्हे भगवान की सेवा करने का अवसर मिल सके। और माँ कहती है की बेटा! तुम सब राग, रोष, ईर्षा, मद और मोह- इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्री सीतारामजी की सेवा करना॥
लक्ष्मण जी कहते हैं की माँ! जागते हुए तो ठीक है लेकिन स्वप्न का क्या भरोसा? तब लक्ष्मण कहते हैं माँ यदि तुम्हारी यही आज्ञा है तो सुनो, मैं ये प्राण लेता हूँ की अब 14 वर्षों तक अखंड राम की सेवा करूँगा। और सोऊंगा भी नही।
माँ कहती हैं- मेरा यही उपदेश है तुम वही करना जिससे वन में तुम्हारे कारण श्री रामजी और सीताजी सुख पावें और पिता, माता, प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जाएँ। तुलसीदासजी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु श्री लक्ष्मणजी को शिक्षा देकर वन जाने की आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्री सीताजी और श्री रघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल निष्काम और अनन्य एवं प्रगाढ़ प्रेम नित-नित नया हो!
अब लक्ष्मण जी ने माता के चरणों में सिर नवाकर ऐसे दौड़े हैं जैसे कोई हिरन कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो। लक्ष्मण को अब भी ये डर है की अब वन जाने में कोई विघ्न नही आना चाहिए। अब लक्ष्मण जी सीता-राम के चरणों में आये हैं और चल दिए हैं।
नगर के स्त्री-पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी! वे ऐसे व्याकुल हैं, जैसे शहद छीन लिए जाने पर शहद की मक्खियाँ व्याकुल हों। सब हाथ मल रहे हैं और ऐसे हों गए हैं जैसे बिना पंखों के पक्षी हो।
Ram sita aur laxman Vanvas jana : राम सीता और लक्ष्मण वनवास जाना
अब सीता-राम और लक्ष्मण दशरथ जी से अंतिम विदा मांगने के लिए आये हैं। सीता सहित दोनों पुत्रों को वन के लिए तैयार देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए। राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। तब रघुकुल के वीर श्री रामचन्द्रजी ने अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर विदा माँगी- हे पिताजी! मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दीजिए। हर्ष के समय आप शोक क्यों कर रहे हैं?
यह सुनकर स्नेहवश राजा ने उठकर श्री रघुनाथजी की बाँह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा- हे तात! सुनो, तुम्हारे लिए मुनि लोग कहते हैं कि श्री राम चराचर के स्वामी हैं। शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर फल देता है। जो जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। सब यही कहते भी हैं। किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है,अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल का भोग कोई और ही पावे। राजा ने राम को रोकने के बहुत प्रयास किये पर सब विफल हो गए। तब राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और कहते हैं बेटी तू यहीं रुक जा। परन्तु सीताजी का मन श्री रामचन्द्रजी के चरणों में अनुरक्त था, इसलिए उन्हें घर अच्छा नहीं लगा और न वन भयानक लगा।
मंत्री सुमंत्रजी की पत्नी और गुरु वशिष्ठजी की स्त्री अरुंधतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियाँ स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो (राजा ने) वनवास दिया नहीं है, इसलिए तुम यहीं महलों में रहो।
सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण (माला, मेखला आदि) और बर्तन (कमण्डलु आदि) लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रख दिए और कोमल वाणी से कहा–हे रघुवीर! चाहे कुछ भी हो जाएं राजा तुम्हे वन जाने को नही कहेंगे। तुम ये वस्त्र धारण करो और वन गमन करो।
राजा ये शब्द सुनकर मूर्छित हो गए, लोग व्याकुल हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्री रामचन्द्रजी तुरंत मुनि का वेष बनाकर और माता-पिता को सिर नवाकर चल दिए।
अब रामजी वशिष्ठ जी के आश्रम पर आये हैं। वशिष्ठ जी कहते हैं यहाँ रुकने में कोई बुराई नहीं है। मैं सब देख लूंगा। तुम बस रुक जाओ।
रामजी कहते हैं आप जानते हो यहाँ से भवन में जाने में देर नहीं लगेगी। उसी समय ब्राह्मण आ गए हैं। भगवान का प्रतिदिन का नियम था स्नान आदि से निवृत होकर दान किया करते थे। और भगवान उनसे कहते थे आप एक बार में ही बहुत सारा दान क्यों नही लें जाते हो? आप रोज आते हो। आप कहो तो एक साल के लिए आपके भोजन का इंतजाम करवा दूँ।
ब्राह्मण कहते थे भगवान- दान का तो बहाना है आपका दर्शन जो पाना है।
पर आज जब ब्राह्मणों ने देखा है तो खेल ही पलट चूका था। ब्रह्मण झोली फैलाये खड़े हैं। रामजी कहते हैं मैं आज कुछ नही दे पाउँगा आपको। अब मुझे सब छोड़कर जाना है।
ब्राह्मण बोले की हमे आज भी कुछ नही चाहिए बस एक बार दर्शन की भीख दे दीजिये। हम जानते हैं आज दर्शन करेंगे फिर 14 वर्षो तक आपके दर्शन नही होंगे। पता नही तब तक हम जीवित रहें या न रहें।
Ram aur Guru Vashisth sanwad : भगवान राम और गुरु वशिष्ठ संवाद
भगवान ने गुरु वशिष्ठ जी से कहा की – हे गुरुदेव! आप इन सब ब्राह्मणों का ख्याल रखना। मेरे जाने के बाद भी इनको देते रहना। कोई कष्ट न हो। फिर दास-दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपकर, हाथ जोड़कर बोले- हे गुसाईं! इन सबकी माता-पिता के समान सार-संभार (देख-रेख) करते रहिएगा।
लेकिन भगवान जब चले हैं तो पीछे-पीछे सब सेवक और दासियाँ चलने लगे हैं। वाल्मीकि रामायण में यहाँ तक लिख दिया वाल्मीकि जी ने केवल नगर के लोग ही नहीं, दीवारें तक रो पड़ी थी अयोध्या की। पत्थर शिलाखंड पिघलने लगे। अयोध्या में अत्यन्त शोक छा गया।
दशरथ जी को होश आया है और सुमंत्र को बुलाकर ऐसा कहने लगे- श्री राम वन को चले गए, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। न जाने ये किस सुख के लिए शरीर में टिक रहे हैं। फिर धीरज धरकर राजा ने कहा- हे सखा! तुम रथ लेकर श्री राम के साथ जाओ। तुम 2-4 दिन इनको वन में घुमाकर वापिस लोट आओ। यदि दोनों भाई न लौटें क्योंकि राम वचन के पक्के हैं तो जनककुमारी सीताजी को तो वापिस लें आना। यदि मेरी बहु वापिस नही आई तो मैं जनक जी को मुह दिखने के लायक नही रहूँगा।
सुमन्त्र जी रथ लेकर चले हैं,सीताजी सहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले॥ और पीछे-पीछे सब नगरवासी हैं। भगवान ने बहुत समझाया की तुम सब मेरे साथ चलोगे तो अयोध्या खाली हो जाएगी तब नगरवासी बोले की प्रभु आप ही हमारी अयोध्या हो। श्री रामचन्द्रजी के बिना अयोध्या में हम लोगों का कुछ काम नहीं है॥ सारे नर-नारी बच्चे वृद्ध सब भगवान के साथ हो लिए।
भगवान तमसा नदी के तट पर रात्रि में रुके हैं। भगवान राम दुखी है और सोच रहे हैं यदि भरत राजा बनेगा और प्रजा नही होगी तो भरत राज्य किस प्रकार करेगा? और मैं भाई को पूरा राज्य दूंगा, प्रजा को लेकर नही जाऊंगा। रात्रि के 2 प्रहर बीत गए हैं सब सो रहे हैं। तब श्री रामचन्द्रजी ने प्रेमपूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा- रथ के इस तरह से हाँकिए की पहियों के चिह्नों से दिशा का पता न चले इस प्रकार। और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी।
शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथ पर सवार हुए। मंत्री ने तुरंत ही रथ को इधर-उधर खोज छिपाकर चला दिया।
जब सुबह हुई है तो सभी अयोध्यावासी शोर मचा रहे हैं कि रघुनाथजी चले गए। कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम! हा राम!’ पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं। इस प्रकार बहुत से प्रलाप करते हुए वे संताप से भरे हुए अयोध्याजी में आए। इस प्रकार भगवान वन में चले गए हैं।
बोलिए सियावर रामचन्द्र की जय!! लक्ष्मण भैया की जय !!
Jai ho bhagwan ram ji ki
ram bhagwan ki jai
26 oct 1976 kanpur 12.15 p.m
Jai Shri Ram