Tapas Prakaran: तापस प्रकरण
उसी समय वहाँ एक तपस्वी आया। वह वैरागी के वेष में था और मन, वचन तथा कर्म से श्री रामचन्द्रजी का प्रेमी। भगवान को देखते ही उसके नेत्रों में जल भर आया और वह दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिर पड़ा, उसकी (प्रेम विह्वल) दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता॥ वह तपस्वी अपने नेत्र रूपी दोनों से श्री रामजी की सौंदर्य सुधा का पान करने लगा और ऐसा आनंदित हुआ जैसे कोई भूखा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंदित होता है॥
इधर श्री रामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के इस रूप को देखकर सब स्त्री-पुरुष स्नेह से व्याकुल हो जाते हैं॥ और आपस में कह रहे हैं-वे माता-पिता कैसे हैं, जिन्होंने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालकों को वन में भेज दिया है। फिर भगवान ने निषादराज गुह को घर लौटा जाने के लिए समझाया है। श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा को सिर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन किया॥
Vanvasiyon ka prem : वनवासियों का प्रेम
सीताजी और लक्ष्मणजी सहित श्री रघुनाथजी जब किसी गाँव के पास जा निकलते हैं, तब उनका आना सुनते ही बालक-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब अपने घर औरकाम-काज को भूलकर तुरंत उन्हें देखने के लिए चल देते हैं॥ उनकी दशा वर्णन नहीं की जाती। मानो दरिद्रों ने चिन्तामणि की ढेरी पा ली हो। कोई भगवान के लिए फल लाता है, कोई पानी लाता है कोई विश्राम करने के लिए बोलता है। श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी की सुंदरता को सब लोग मन, चित्त और बुद्धि तीनों को लगाकर देख रहे हैं॥
गाँवों की स्त्रियाँ सीताजी के पास जाती हैं, बार-बार सब उनके पाँव लगतीं और कहती हैं -हे राजकुमारी! हम विनती करती आपसे कुछ पूछना चाह रही है पर आपके डर से पूछ नही पा रही हैं। श्याम और गौर वर्ण है, सुंदर किशोर अवस्था है, दोनों ही परम सुंदर और शोभा के धाम हैं। करोड़ों कामदेवों को लजाने वाले ये तुम्हारे कौन हैं?
जानकी जी पृथ्वी की और देखती हैं और सकुचा रही हैं- संकोच इस बात का है यदि नहीं बताती हूँ तोग्राम की स्त्रियों को दुःख होने का संकोच है और बताने में लज्जा रूप संकोच। फिर जानकी जी कहती हैं। ये जो सहज स्वभाव, सुंदर और गोरे शरीर के हैं, उनका नाम लक्ष्मण है, ये मेरे छोटे देवर हैं।
फिर सीताजी ने (लज्जावश) अपने चन्द्रमुख को आँचल से ढँककर और प्रियतम (श्री रामजी) की ओर निहारकर भौंहें टेढ़ी करके, खंजन पक्षी के से सुंदर नेत्रों को तिरछा करके सीताजी ने इशारे से उन्हें कहा कि ये मेरे पति हैं।
यह जानकर गाँव की सब युवती स्त्रियाँ इस प्रकार आनंदित हुईं, मानो कंगालों ने धन की राशियाँ लूट ली हों॥ और खूब आशीष दिया है जानकी जी को।
तब लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित श्री रघुनाथजी ने गमन किया और सब लोगों को प्रिय वचन कहकर लौटाया। लौटते हुए वे स्त्री-पुरुष बहुत ही पछताते हैं और मन ही मन दैव को दोष देते हैं। जब विधाता ने इनको वनवास दिया है, तब उसने भोग-विलास व्यर्थ ही बनाए।
कोई एक कहते हैं कि राजा बहुत ही अच्छे हैं, जिन्होंने हमें अपने नेत्रों का लाभ दिया। कोई कहता है – वे माता-पिता धन्य हैं, जिन्होंने इन्हें जन्म दिया। वह नगर धन्य है, जहाँ से ये आए हैं। वह देश, पर्वत, वन और गाँव धन्य है और वही स्थान धन्य है, जहाँ-जहाँ ये जाते हैं॥
गोस्वामी जी कहते हैं – प्यारे पथिक सीताजी सहित दोनों भाइयों को जिन-जिन लोगों ने देखा वे तो बिना परिश्रम ही भव-बंधन से मुक्त हो गए। आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसें, तो वह भी श्री रामजी के परमधाम के उस मार्ग को पा जाएगा, जिस मार्ग को कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं॥
तब श्री रामचन्द्रजी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष और ठंडा पानी देखकर उस दिन वहीं ठहर गए।
प्रातःकाल स्नान करके श्री रघुनाथजी आगे चले हैं सुंदर वन, तालाब और पर्वत देखते हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी वाल्मीकिजी के आश्रम में आए।