Ram-Laxman Gyan charcha(sanwad) : राम-लक्ष्मण ज्ञान चर्चा(संवाद)
एक बार प्रभु श्री रामजी सुख से बैठे हुए थे। उस समय लक्ष्मणजी ने उनसे सरल वचन कहे- हे देव! मुझे समझाकर वही कहिए, जिससे सब छोड़कर मैं आपकी चरणरज की ही सेवा करूँ। ज्ञान, वैराग्य और माया का वर्णन कीजिए और उस भक्ति को कहिए, जिसके कारण आप दया करते हैं॥
श्री रामजी ने कहा- हे लक्ष्मण! मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने सभी जीवों को वश में कर रखा है॥ जहाँ तक यह मन जाता है और जहाँ तक इन्द्रियों के विषय हैं इन सबको माया ही जानो। माया 2 तरह की है एक अविद्या और दूसरी विद्या।
अविद्या दुःखरूप है, जो हमेशा दुःख देती है जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है।
विद्या- जिसके वश में गुण है और जो जगत् की रचना करती है, वह प्रभु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है॥
ज्ञान वह है, जिसमें मान आदि एक भी दोष नहीं है और जो सबसे समान रूप से ब्रह्म को देखता है।
वैराग्यवान् उसे कहना चाहिए, जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो॥
जीव वो है जो जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता।
ईश्वर वो है जो कर्मानुसार बंधन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है।
धर्म (के आचरण) से वैराग्य और योग से ज्ञान होता है और ज्ञान से मोक्ष मिलता है ऐसा वेदों ने कहा है।
हे भाई! जिससे मैं शीघ्र ही प्रसन्न होता हूँ, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है॥ भक्ति स्वतंत्र है, भक्ति अनुपम एवं सुख की मूल है और वह तभी मिलती है, जब संत अनुकूल (प्रसन्न) होते हैं॥
फिर भगवान ने नवधा भक्ति के बारे में बताया है। भगवान कहते है जिसे मेरी लीला से प्रेम होगा उस पर मेरी कृपा होगी। जिसका संतों के चरणकमलों में अत्यंत प्रेम हो, मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़ नियम हो और जो मुझको ही गुरु, पिता, माता, भाई, पति और देवता सब कुछ जाने और सेवा में दृढ़ हो,
मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा॥ मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और नेत्रों से (प्रेमाश्रुओं का) जल बहने लगे।
और काम, मद और दम्भ आदि जिसमें न हों, हे भाई! मैं सदा उसके वश में रहता हूँ॥
यदि भगवान की याद में आँखों से प्रेम के आंसू आये तो भगवान उस भक्त के वश में हो जाते हैं।
जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं, उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूँ॥
इस भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मणजी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्री रामचंद्रजी के चरणों में सिर नवाया। आगे पढ़ें…
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