Indriyo par Niyantran/Control kaise kare : how to control the senses in hindi
इन्द्रियों पर कण्ट्रोल/काबू कैसे करें?
श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बहुत सुंदर बताया है कि मन पर कैसे कण्ट्रोल करें? इन्द्रियों पर कण्ट्रोल कैसे करें?
अर्जुन पूछता है – यदि कोई किसी इन्द्रिय(Indriya) को ही काटकर फेंक दें तो क्या उस इन्द्रिय का विषय नष्ट हो जायेगा?
कृष्ण कहते हैं – नहीं अर्जुन! यदि किसी दुर्घटनावश किसी की आँखे अंधी हो जाएँ तो ये आवश्यक नहीं कि उसकी आँखें रूप की कल्पना करना ही छोड़ दें। आँखें ना होने पर भी उसका मन ऐसे दृश्यों की कल्पना कर सकता है जो उसे विषयों के मोह में फसाये चले जाये। पार्थ! एक अँधा मनुष्य भगवान के स्वरूप की भी कल्पना कर सकता है और एक नारी के शरीर की भी कल्पना कर सकता है। सो किसी इन्द्रिय के होने, न होने से मन की वासना और आशक्ति पर फर्क नहीं पड़ता। ‘
हे अर्जुन! तुम यूँ समझो कि जैसे कोई मनुष्य आँखें बंद करके ये प्रदर्शन कर रहा है कि वो भगवान का ध्यान लगाए बैठा है परन्तु वो वास्तव में उसके मन की आँखों में भगवान की मूरत नहीं, अपनी प्रेमिका का शरीर घूम रहा है। इसका अर्थ है कि उसकी आँखें तो बंद है परन्तु आँखों के विषय उसे फिर भी भ्रमित कर रहे हैं।
हे अर्जुन कई लोग अपनी इन्द्रियों पर बड़ी कठोरता से निग्रह करने के लिए बड़े कठिन व्रत, उपवास रखते हैं। कई-कई दिनों तक खाना पीना छोड़ देते हैं। फिर भी यदि उनका मन भांति-भांति के स्वादिष्ट भोजनों की वासना में ही अटका रहे तो हट के द्वारा किये हुए इस व्रत उपवास का क्या लाभ है?
ऐसे लोग हठ के द्वारा अपनी इन्दिर्यों को सुखाकर निर्बल तो कर देते हैं परन्तु इससे विषयों की आशक्ति का त्याग नहीं हो सकता।
याद रखो! विषयों से अधिक खतरनाक है विषयों की आशक्ति और विषयों की आशक्ति का त्याग केवल इन्द्रियों के निग्रह से नहीं हो सकता। आशक्ति का त्याग केवल मन के निग्रह से होता है। जब मन निराशक्त हो जाये तो इन्द्रियां अपने-अपने विषयों को भोगती हुई भी इन विषयों से निराशक्त रहती है।
जैसे कमल का फूल पानी के अंदर रहते हुए भी सूखा ही रहता है। जल की एक बून्द भी उसके पत्ते पर नहीं ठहर सकती। इसलिए मैंने कहा है कि पहले ज्ञान के द्वारा बुद्धि को स्थिर करो। बुद्धि मन को स्थिरता देगी, फिर मन इन्दिर्यों को इस प्रकार विषयों से खींच लेगा जिस प्रकार एक कछुआ खतरे की जरा सी आहट पाते ही अपने अंगों को अपने भीतर समेट लेता है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेऽभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
अर्थ – जिस तरह कछुआ अपने अङ्गों को सब ओर से समेट लेता है ऐसे ही जिस कालमें यह कर्मयोगी इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे समेट लेता (हटा लेता) है तब उसकी बुद्धि प्रतिष्ठित हो जाती है।
कछुआ चारों ओर से अपने अंग समेट के बैठे जैसे,
सारे भोगों से खींच के इन्द्रियां एक स्थितप्रज्ञ रहे स्थिर ऐसे,
इन्द्रियां जिसके वश में रहें, हो वो स्थितप्रज्ञ अनस्थिर कैसे,
मेरे परायण होके जो बैठे मुक्त रहे वो अधर्म के भय से,
मेरी शरण में आके जो बैठे युक्त रहे वो आत्म के जैसे।