20800 Kings(raja) ki mukti Jarasandh Story
बीस हजार आठ सौ राजाओ की मुक्ति जरासंध कहानी/कथा
भगवान श्री कृष्ण ने जरासंध को मारा और बीस हजार आठ सौ राजाओं को जरासंध की कैद से मुक्त करवाया है। वे भूख से दुर्बल हो रहे थे और उनके मुँह सूख गये थे। जेल में बंद रहने के कारण उनके शरीर का एक-एक अंग ढीला पड़ गया था। उन राजाओं ने भगवान का दर्शन किया है। भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन से उन राजाओं को इतना अधिक आनन्द हुआ कि कैद में रहने का क्लेश बिलकुल जाता रहा। वे हाथ जोड़कर विनम्र वाणी से भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे–
कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतक्लेशनाशाय गोविन्दाय नमो नमः॥ (Krishnay Vasudevay Harye Parmatmane. Parnatkaleshnasay Govinday Namo Namh)
प्रणाम करने वालों के क्लेश का नाश करने वाले श्रीकृष्ण, वासुदेव, हरि, परमात्मा एवं गोविन्द के प्रति हमारा बार-बार नमस्कार है ।
जैसे मूर्ख लोग मृगतृष्णा के जल को ही जलाशय मान लेते हैं, वैसे ही इन्द्रियलोलुप और अज्ञानी पुरुष भी इस परिवर्तनशील माया को सत्य वस्तु मान लेते हैं । भगवन्! पहले हम लोग धन-सम्पत्ति के नशे में चूर होकर अंधे हो रहे थे। इस पृथ्वी को जीत लेने के लिये एक-दूसरे की होड़ करते थे और अपनी ही प्रजा का नाश करते रहते थ! सचमुच हमारा जीवन अत्यन्त क्रूरता से भरा हुआ था, और हम लोग इतने अधिक मतवाले हो रहे थे कि आप मृत्युरूप से हमारे सामने खड़े हैं, इस बात की भी हम तनिक परवा नहीं करते थे। लेकिन आपकी अहैतुक अनुकम्पा से हमारा घमंड चूर-चूर हो गया। अब हम आपके चरणकमलों का स्मरण करते हैं ।
भगवान श्री कृष्ण उनसे कहते हैं- यह जान लो कि मैं सबकी आत्मा और सबका स्वामी हूँ। मैं देखता हूँ, धन-सम्पत्ति और ऐश्वर्य के मद से चूर होकर बहुत-से लोग उच्छ्रंखल और मतवाले हो जाते हैं । हैहय, नहुष, वेन, रावण, नरकासुर आदि अनेकों देवता, दैत्य और नरपति श्रीमद के कारण अपने स्थान से, पद से च्युत हो गये । तुम लोग यह समज लो कि शरीर और और इसके सम्बन्धी पैदा होते हैं, इसलिये उनका नाश भी अवश्यम्भावी है। अतः उनमें आसक्ति मत करो। बड़ी सावधानी से मन और इन्द्रियों को वश में रखकर यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करो और धर्मपूर्वक प्रजा की रक्षा करो ।
तुम लोग अपनी वंश-परम्परा की रक्षा के लिये, भोग के लिये नहीं, सन्तान उत्पन्न करो और प्रारब्ध के अनुसार जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, लाभ-हानि—जो कुछ प्राप्त हों, उन्हें समान भाव से मेरा प्रसाद समझकर सेवन करो और अपना चित्त मुझमें लगाकर जीवन बिताओ ।देह और देह के सम्बन्धियों से किसी प्रकार की आसक्ति न रखकर उदासीन हो; अपने-आप में, आत्मा में ही रमण करो और भजन तथा आश्रम के योग्य व्रतों का पालन करते रहो। अपना मन भलीभाँति मुझमें लगाकर अन्त में तुम लोग मुझ ब्रम्हस्वरुप को ही प्राप्त हो जाओगे।
इस तरह भगवान ने उन्हें सुंदर ज्ञान दिया। और उन्हें विदा किया है। इसके बाद भगवान ने जरासंध के पुत्र सहदेव को राजगद्दी प्रदान की। इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण भीमसेन के द्वारा जरासन्ध का वध करवाकर भीमसेन और अर्जुन के साथ जरासन्धनन्दन सहदेव से सम्मानित होकर इन्द्रप्रस्थ के लिये चले।