Sabke samne Sach Kaise bole ?
सबके सामने सच कैसे बोलें ?
जब दुर्योधन को जल में थल और थल में जल का भ्रम हुआ था तो दुर्योधन जमीन समझकर पानी में गिर गया, तब द्रौपदी ने देखा तो वो हंसने लगी और कहती है अंधे के अंधे ही होते हैं और ये दो शब्द महाभारत युद्ध का कारण बन गए। इन्हीं दो शब्दों की वजह से महाभारत युद्ध हुआ। हालांकि द्रौपदी ने बात कोई गलत नहीं कही थी, बात तो ठीक ही कही थी न उसने। क्योंकि धृतराष्ट्र तो स्वयं अंधे हैं ही आँखों से, प्रज्ञा चक्षु हैं लेकिन दुर्योधन भी अँधा है, धृतराष्ट्र आँखों से अँधा है, पुत्र मोह में अँधा है तो दुर्योधन अभिमान से अँधा है। अंधे दोनों ही हैं। द्रौपदी ने कुछ गलत नहीं कहा लेकिन कहने का ढंग गलत हो गया है।
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कहने का ढंग कभी गलत नहीं होना चाहिए क्योंकि बहुत से लोग बोलते हैं महाराज, हम तो सच बोलते हैं किसी को कड़वा लगते तो लगे।
ये गलत है। आप सच को जान बूझकर कड़वा बनाकर बोल देते हो क्योंकि दूसरे को चोट पहुँचानी है। हम चाहे तो सच को भी बहुत सजाकर बोल सकते हैं, मीठा बनाकर बोल सकते हैं, ये हमारे ऊपर है सब कुछ। तभी कहा कि
शब्द संभालकर बोलिये शब्द के हाथ न पाँव
एक शब्द औषधि और एक शब्द है घाव।
आपका एक ही शब्द किसी के लिए दवा का काम कर सकता है और वो ही शब्द किसी के लिए घाव का काम कर सकता है। आप शब्दों को बहुत सोच समझकर बोलिये क्योंकि हमारी पहचान हमारी वेशभूषा से नहीं है, हमारी पहचान हमारी उम्र से नहीं है, हमारी प्रतिष्ठा से नहीं, हमारे पैसे से नहीं है, व्यक्ति की असली पहचान उसके शब्दों से है, असली पहचान शब्दों से होती है क्योंकि जो देखने में अच्छे लगते हैं उनकी बातें सुनों आप, कितना कड़वा बोलते हैं लोग। कोई सुन नहीं सकता इतना गलत बोलते हैं। तो मालूम चल जाता है कितने बड़े हैं ये। शब्द बता देते हैं हमारी पहचान, जुबां से जाहिर हो जाती है। इसलिए शास्त्र भी कहता है –
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला:।
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजा:।
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते।
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्॥
अर्थ:—- बाजुबन्द पुरुष को को शोभायमान नहीं करते हैं और ना ही चन्द्रमा के समान उज्जवल हार ,न स्नान,न चन्दन का लेप,न फूल और ना ही सजे हुए केश ही शोभा बढ़ाते हैं। केवल सुसंस्कृत प्रकार से धारण की हुई वाणी ही उसकी भली भांति शोभा बढ़ाती है साधारण आभूषण नष्ट हो जाते है परन्तु वाणी रूपी आभूषण निरन्तर जारी रहने वाला आभूषण हैं।
इसलिए सोच समझकर शब्द बोलने चाहिए, गलत वाणी का प्रयोग कभी किसी से न करो, अच्छा बोलो। चाहे तुम सच भी बोल रहे हो उस सच को भी मीठा बनाकर बोलो तुम।
अब जैसे किसी व्यक्ति के घर कोई रिश्तेदार आये। तो अपने बच्चे तो तुरंत पैसे दिए और कहा कि बेटा, जल्दी सामने की दुकान पर जा और गरम गरम जलेबियाँ लेकर आ एकदम।
बच्चे ने पूछा – पिताजी कैसी जलेबी?
पिता ने कहा बिल्कुल गरम, बस कढ़ाई से उतरते ही तुरंत लेकर आ जाकर के।
वो पैसे लेकर तुरंत दौड़ा दौड़ा गया और जाकर दुकानदार को कहा कि मुझे एकदम गरम जलेबी चाहिए, वो उस समय बना ही रहा था। तो उसने कढ़ाई से निकाली ही थी। लड़का बोला मुझे ऐसा ही दे दो, ये ही गरमा गरम।
दुकानदार ने कहा इसको चासनी में तो डालने दो, ये मीठी नहीं है।
लड़का बोला नहीं, मेरे पिताजी ने कहा है ऐसी ही लानी है बिल्कुल गरम, कढ़ाई से उतरते ही।
वो ऐसे ही लेकर पहुँच गया। अब उसका रूप रंग तो नहीं बदला, लेकिन उसमें मिठास नहीं थी, क्यों?
क्योंकि उसको पकाया तो गया खूब, घी में खूब डाला गया, वो पक तो गई अच्छी तरह, लेकिन उस जलेबी में चासनी नहीं भरी गई, उसे चासनी में नहीं डाला गया। तो खाने वालों को स्वाद नहीं आया। थी तो वो जलेबी ना? खूब पकाया भी गया उसको, देखने में भी बिल्कुल अच्छी थी लेकिन उसमें मिठास नहीं थी तो खाने वालों को अच्छा नहीं लगा।
बंधुओं इसी तरह से आप सत्य बोलो, खूब सत्य आपका अच्छा होना चाहिए, पका हुआ होना चाहिए, लेकिन उस सत्य में यदि आपके मिठास नहीं है, चासनी नहीं है तो वो भी किसी को अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए सत्य मीठा होना चाहिए, कड़वा नहीं।
शब्द : आचार्य गौरव कृष्ण जी महाराज